Saturday, June 5, 2010

त्वरित टिप्पणी


विरासत की निर्मम हत्या







रवीन्द्र जैन

ग्वालियर में नगर निगम एवं जिला प्रशासन की लापरवाही से शनिवार को एक सौ पांच साल पुरानी विरासत की निर्मम हत्या हो गई। इस अपराध के दोषी कौन है? यह तो जांच के बाद ही तय होगा, लेकिन यह तय है कि इस भवन पर मालिकाना हक को लेकर दुकानदार, नगर निगम और पुरातत्व विभाग के बीच लंबे समय से विवाद की स्थिति बनी हुई थी। सन् 1905 में तत्कालीन महाराजा माधवराव सिंधिया द्वितीय ने महारानी विक्टोरिया की याद में जब इस भवन की निर्माण कराया था, तब शायद उन्होंने यह सोचा भी नहीं होगा कि, इस भवन के पिछवाड़े शराबियों का अड्डा बन जाएगा।

इस भवन को लेकर जिला प्रशासन व नगर निगम की लापरवाही किस हद थी कि, मार्केट के अंदर इतनी दुकानें बना ली गईं थी कि आम आदमी का पैदल चलना भी मुश्किल हो गया था। मार्केट के पूर्वी गेट की ओर चाट वालों का कब्जा हो गया था और अंदर किताबों के अलावा दौने-पत्तल वालों ने दुकान से ज्यादा सामान दुकान के बाहर फैला रखा था। पश्चिमी गेट की ओर भोजनालय बन गए थे और दक्षिणी गेट और उसके पीछे शराबियों का अघोषित अड्डा बना हुआ था। जिला प्रशासन की कृपा से इस भवन के पिछवाड़े देशी शराब की कलारी लंबे समय से चल रही थी। मार्केट के उत्तर दिशा में बने मुख्य द्वार की दुकानें सबसे मंहगी मानी जाती हैं। इसके बाद भी जिला प्रशासन ने इस एतिहासिक भवन को आग से बचाने के बारे में शायद कभी विचार ही नहीं किया था, और न ही दुकानदारों को इस संबंध में चेतावनी दी गई। नगर निगम तो इस मामले में और भी ज्यादा लापरवाह साबित हुआ। डेढ़ साल पहले 23 जनवरी 2009 को नगर निगम के तत्कालीन महापौर विवेक नारायण शेजवलकर ने विक्टोरिया मार्केट का भ्रमण किया था, तब उन्होंने दुकानदारों और यहां खरीदी करने आने वालों की समस्याओं को सुलझाने के बजाय फरमान जारी कर दिया था कि मार्केट की पहली मंजिल पर दुकानें बनाने की तैयारी की जाए। यह बात अलग है कि नगर निगम अफसरों ने महापौर के इस आदेश का पालन नहीं किया।

विक्टोरिया मार्केट, पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की राजनीतिक यात्रा का मूकदर्शक भी रहा है। ग्वालियर में अटलजी की बड़ी सभाओं के लिए मंच का निर्माण इस इमारत के गेट पर ही होता था। शुक्रवार की रात लोगों ने इस एतिहासिक भवन को आखिरी बार देखा, क्योंकि शनिवार की सुबह भीषण अग्रिकांड से यह भवन पूरी तरह नष्ट हो चुका था। इस भवन में बनी लगभग सौ से ज्यादा दुकानें पूरी तरह स्वाहा हो चुकी थीं, और बर्वाद हुए दुकानदारों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। प्रशासन ने पूरी तरह बर्वाद हो चुके पीडि़त दुकानदारों के आंसू पोंछने के नाम पर उन्हें बीस-बीस हजार रूपए देने का प्रयास करके एक तरह से उनके जले पर नमक डालने का ही प्रयास किया है।

ग्वालियर की पहचान उसकी एतिहासिक इमारतों से है और इन इमारतों की सुरक्षा को लेकर प्रशासन की ऐसी लापरवाही अक्षम्य है। महाराज बाड़ा जहां यह इमारत बनी हुई थी, वह ग्वालियर की शान है, लेकिन बेतरतीब ढंग से बन रहीं दुकानों और आसपास हो रहे अवैध निर्माण ने इस शान को कमजोर किया है। प्रशासन को अब जागना होगा और ग्वालियर की इस शान को बचाने सबको विश्वास में लेकर काम करना होगा। वरना ग्वालियर की एतिहासिक विरासतें भगवान भरोसे ही रहेंगी....?

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